मोबाइल में दोस्तों के नाम जमा किये जा रहे है
याद कभी कर पाते नहीं
जब भूला बिसरा कोई दोस्त मिलता है
तो बहाना मारते है
“वक़्त नहीं है”
रिश्तों पर रिश्तें बनाए ही चले जा रहे है
प्यार उसमें कुछ पनपते नहीं
जब माँ बालों पर उंगलिया फेरती है
तो खीजकर कहते है
“वक़्त नहींब है”
बैंक बैलेंस दिनों दिन बङते जा रहे है
खर्च करने का मौक़ा मिलता नहीं
जब ज़रुरतमंद कुछ पैसा मांगता है तब
मुह बनाकर कहते है
“वक़्त नहीं है”
सरकार पर दोष लगाए जा रहे हैं
हमें कोई सुविधा मिलती नहीं
जब वोट डालने की बारी आती है
बिना नज़रें मिलाए कहते है
“वक़्त नहीं है”
आख़िर ये ‘वक़्त’ होता किसलिए है
इसे जीकर याद बनाते क्यूँ नहीं
फिर जब अन्तिम समय आता है
आँखों में आसू लिए पछताकर कहते है
“वक़्त नहीं है”
Posted by Narendra Jangir
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